Tuesday, April 12, 2011

सुगंध - ३

मैं कब जन्मी थी जीने को,

कब मौत हुई मेरी सोचूँ

मैं तो युग युग से इसी सृष्टि की

एक निरंतर कविता हूँ

कर्म धर्म सुख दुःख की गाथा

बैठ पथिक सुनाता है

मेरी रूचि कब थी इन बातों में

इश्वर के धुन क्यूँ गाता है

जो फूल खिल गया बिन बातों से

उसकी सुगंध की प्यासी मैं

स्वयं पंक्ति जुड़ जाती मुझमें

उसके खिलने की जब सोचूँ

होंठ बंद कर पढ़ लो मुझको

हंस लेना जब उर तक पहुंचूं

यहाँ उतरते शब्दों से मैं

वहां फैलाते मद तक सोचूँ

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ऐसे भी तो दिन आयेंगे

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